वानखेड़े जैसा रैंक टर्नर पिच बनाने का फैसला 1956 के एक टेस्ट में भी बड़ा भारी पड़ा था
हार और जीत को खेल का एक हिस्सा मान भी लें तो भी 2024 न्यूजीलैंड सीरीज में भारत की 0-3 की हार में ये फैसला कतई समझ नहीं आया कि टीम के पास एक बेहतर पेस अटैक होने के बावजूद
हार और जीत को खेल का एक हिस्सा मान भी लें तो भी 2024 न्यूजीलैंड सीरीज में भारत की 0-3 की हार में ये फैसला कतई समझ नहीं आया कि टीम के पास एक बेहतर पेस अटैक होने के बावजूद उसे बिल्कुल नजरअंदाज किया (यहां तक कि उप-कप्तान और अपने नंबर 1 पेसर बुमराह को सम्मान दांव पर होने के बावजूद मुंबई में रेस्ट दिया)। टीम की पुणे में टर्न लेने वाली पिच पर हार के बावजूद, वानखड़े स्टेडियम के लिए भी रैंक टर्नर को चुना। मजे की बात ये कि मेहमान स्पिनर ने भारत को, उन्हीं की पसंद की पिच पर मात दी।
भारत में रैंक टर्नर पिच बनाना कोई अनोखी घटना नहीं पर वानखड़े टेस्ट अनोखा इसलिए बन गया कि पिच का फायदा भारत के अपने स्पिनरों से ज्यादा न्यूजीलैंड के स्पिनर उठा गए। एक बड़ी पुरानी कहावत है- जो कड़वी दवाई किसी दूसरे के लिए बनाई थी, उसे खुद ही पीना पड़ गया। ऐसा ही एक टेस्ट और भी है और तब भी 'कड़वी दवाई खुद पीने' वाली बात सही साबित हुई थी।
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और चर्चा के लिए 2 नवंबर 1956 से कलकत्ता में खेले ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध टेस्ट पर चलते हैं। देखिए टेस्ट की रिपोर्ट पर विजडन ने क्या लिखा- 'पिच ने शुरू से ही स्पिन ली और 39 में से 35 विकेट धीमे गेंदबाजों ने लिए। ऑस्ट्रेलिया को बल्लेबाजी के लिए बुलाने के बाद कप्तान पॉली उमरीगर ने गुलाम अहमद को अटैक पर लगाने में देर नहीं लगाई और इस ऑफ स्पिनर ने 6.2 ओवर में 3 रन देकर 3 विकेट लिए। उसके बाद क्रेग का रिटर्न कैच छोड़ा और वे बर्ज के साथ चौथे विकेट के लिए 68 रन जोड़ गए- तब भी गुलाम ने 7-49 का रिकॉर्ड बनाया और ऑस्ट्रेलिया सिर्फ 177 रन पर आउट।'
भारत टॉप पर था और पहले दिन स्कोर 15-0 था। रात भर बारिश हुई जिससे अगले दिन खेल शुरू होने में 65 मिनट की देरी हुई। पिच सूख तो गई पर मिजाज एक दम बदल गया और रिची बेनो के लेग ब्रेक खेलना मुश्किल हो गया। भारत- 136 पर आउट और बेनो के 6 विकेट थे। भारत ने 41 रन से पीछे रहने के बाद गुलाम अहमद और वीनू मांकड़ की जोड़ी के साथ ऑस्ट्रेलिया को दूसरी पारी में परेशान तो किया पर हार्वे की तीन घंटे तक बेमिसाल बल्लेबाजी और बाद के बल्लेबाजों की बोल्ड हिटिंग से भारत को जीत के लिए 231 रन की जरूरत थी। अपनी पहली पारी की तरह, भारत ने लंच तक रन बनाए और जब स्कोर 74-2 था तो बेनो ने बर्क की ऑफ-ब्रेक की मदद से एकदम ब्रेक लगा दी। आखिरी 5 विकेट 15 रन में गिर गए। बेनो ने 105 रन देकर 11 विकेट लिए टेस्ट में और भारत खेल के चौथे दिन 94 रन से हार गया।
उस दौर में तो भारत अटैक के नाम पर अपने धीमे गेंदबाजों पर ही निर्भर था लेकिन ईडन गार्डन्स की पिच ने स्पिनरों को ऐसी मदद दी कि उनके एकमात्र मीडियम पेस जी रामचंद ने दो पारी में सिर्फ 4 ओवर फेंके। भारत की स्पिन तिकड़ी- ऑफी गुलाम अहमद, खब्बू ऑर्थोडॉक्स वीनू मांकड़ और लेगी सुभाष गुप्ते ने दोनों पारी में ऑस्ट्रेलिया को 200 से कम रन पर आउट कर दिया लेकिन ये अभी भी टेस्ट जीतने के लिए 'कम' था क्योंकि रिची बेनो ने तो दो बार भारत की बल्लेबाजी को चकमा दिया।
किन हालात में उस दौर में भारत में टेस्ट खेले जाते थे, आप नोट करें तो हैरान रह जाएंगे। ऐसी शेड्यूलिंग कि आज के क्रिकेटर तो शायद खेलने से भी इनकार कर देते। कलकत्ता में तीसरा टेस्ट शुरू हुआ 2 नवंबर से और नोट कीजिए- सिर्फ दो ही दिन पहले दूसरा टेस्ट खत्म हुआ था। उस पर सीरीज का शेड्यूल ऐसा कि 3 टेस्ट सिर्फ 19 दिन के अंदर खेले और अगर इसी टूर में ऑस्ट्रेलिया के पाकिस्तान में खेले एकमात्र टेस्ट को भी जोड़ लें तो ऑस्ट्रेलिया ने 4 हफ्ते से भी कम में, बेहद गर्मी में 4 टेस्ट खेले थे।
दूसरे टेस्ट में भारत के बेहतर बल्लेबाजी प्रदर्शन ने टीम की उम्मीदें ऐसी बढ़ा दी थीं कि ईडन गार्डन्स की पिच को ऐसा टर्नर बनाया कि बेनो उसे देख हैरान रह गए थे और उनके मुंह से निकला- इस पर कौन खेल पाएगा? मीडिया में रिपोर्ट थी कि टेस्ट से पहले ग्राउंड पर खूब पानी डाला था और पिच पहले दिन से ही टर्न लेने लगी। इसलिए उमरीगर ने स्ट्रेटजी बदल कर पहले फील्डिंग का फैसला किया। ये तब तक अच्छा फैसला था जब तक ऑस्ट्रेलिया 177 पर आउट और गुलाम अहमद के 7 विकेट के साथ गुप्ते और मांकड़ के नाम बचे 3 विकेट नजर आ रहे थे। भारत के खुद 136 पर आउट होने से इसका फायदा गायब हो गया। भारत को जीत के लिए मिला 231 का लक्ष्य बहुत बड़ा नहीं था पर इस टेस्ट में किसी भी पारी का टॉप स्कोर होता। भारत ने तो 136 रन ही बनाए- अपनी पहली पारी के बराबर।
ऑस्ट्रेलिया ने 3 टेस्ट की सीरीज को 2-0 से जीत लिया पर भारत-ऑस्ट्रेलिया टेस्ट क्रिकेट में ये सबसे कम चर्चित और महत्व वाली सीरीज बन गई। कप्तान इयान जॉनसन ने 1957 में एक किताब लिखी 'क्रिकेट एट द क्रॉसरोड्स (Cricket at the Crossroads)' और उसमें भारत के इस टूर का जिक्र तक नहीं किया। एलन डेविडसन ने भी अपनी बायोग्राफी 'फिफ्टीन पेस (Fifteen Paces)' में टूर के बारे में सिर्फ कुछ लाइन लिखीं। 'स्लेशर' मैके और हार्वे दोनों ने 1956 सीरीज के मुकाबले, बाद में 1959-60 के टूर के बारे में ज्यादा लिखा। शायद टूर का सबसे छोटा और सटीक सारांश 'विलो पैटर्न्स (Willow Patterns)' में बेनो ने लिखा- 'भारत में 1956 की यह सीरीज, जिसमें सिर्फ 3 टेस्ट थे, बहुत कम आकर्षक क्रिकेट वाली थी।'
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- चरनपाल सिंह सोबती