भारतीय क्रिकेटर पलवंकर बालू को सब कितना जानते हैं? अब उन पर बायोपिक बन रही है, हीरो हैं अजय देवगन
एक नई खबर : भारत के पहले दलित क्रिकेटर की बायोपिक बन रही है लीड रोल में- अजय देवगन क्रिकेटर का नाम- पलवंकर बालू (Palwankar Baloo) फिल्म डायरेक्टर- तिग्मांशु धूलिया फिल्म प्रोड्यूसर- प्रीति सिन्हा फिल्म की स्टोरी-...
एक नई खबर : भारत के पहले दलित क्रिकेटर की बायोपिक बन रही है
लीड रोल में- अजय देवगन
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क्रिकेटर का नाम- पलवंकर बालू (Palwankar Baloo)
फिल्म डायरेक्टर- तिग्मांशु धूलिया
फिल्म प्रोड्यूसर- प्रीति सिन्हा
फिल्म की स्टोरी- क्रिकेट इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड (A Corner of a Foreign Field)' से है
पलवंकर बालू का नाम, न तो टेस्ट और न ही वनडे एवं टी20 इंटरनेशनल क्रिकेटर की लिस्ट में है- तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि कौन थे पलवंकर बालू? इस एक सवाल के जवाब में भारतीय क्रिकेट के शुरू के सालों का पूरा इतिहास ही नहीं देश की आजादी के दौर का जिक्र भी खुल जाएगा पर संक्षेप में इसका जवाब देने की कोशिश करते हैं।
पलवंकर बालू ने पुणे के एक क्रिकेट क्लब में ग्राउंड्स मैन के तौर पर क्रिकेट से पहला नाता जोड़ा। क्रिकेट के शौकीन थे- दूसरे खिलाड़ियों को देखकर, उनकी ट्रेनिंग में कही बातों को सुनकर, जब नेट्स पर कोई न होता था तो खेलना शुरू कर दिया। इसी से एक टीम और फिर दूसरी टीम का रास्ता बना और आखिरकार 1896 में, उस समय की सबसे बड़ी टीम हिंदू जिमखाना के लिए खेलने के लिए चुन लिया। अगर इतिहास में थोड़ी सी भी रूचि हो तो ये मालूम होगा कि उस समय देश अछूत जैसे कई भेदभाव की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और ऐसे में एक दलित क्रिकेटर का एक बड़ी टीम में आना और बड़े-बड़े घराने के क्रिकेटरों के साथ खेलने का मौका हासिल करना अपने आप में एक संघर्ष की स्टोरी है।
क्रिकेट में पलवंकर बालू ने इसे संभव किया। इस किताब में पलवंकर बालू के जीवन में घटित हुई घटनाओं (खास तौर पर करियर में झेले भेदभाव) के बारे में बहुत कुछ लिखा है। किताब में उनकी क्रिकेट तक की स्टोरी है पर वास्तव में पलवंकर बालू की उसके बाद की लड़ाई की स्टोरी भी कोई कम नहीं। वे उसके बाद पॉलिटिक्स में आ गए थे। अभी से ये कह पाना मुश्किल है कि फिल्म कहां तक जाएगी?
भारतीय इतिहास की कई किताबों में उन्हें भारत का पहला दलित आइकन भी माना है। जन्म- 1875 में धारवाड़ में और परिवार में चार भाइयों में सबसे बड़े। पिता 112वीं इन्फेंट्री रेजिमेंट में सिपाही थे- ये ब्रिटिश भारतीय सेना की नौकरी थी। बड़े होकर बालू और उनके भाई शिवराम को काम मिला पुणे में ग्राउंड में बड़े ऑफिशियल के क्रिकेट के लिए नेट्स लगाना और ग्राउंड की देख-रेख का। बस उसी में जो क्रिकेट सामान छोड़ दिया जाता था- उसी से ये दोनों भाई खेलते थे।
ये तो सब जानते हैं कि उस समय भारत में क्रिकेट टीम धर्म के हिसाब से बंटी थीं- पारसी, हिंदू और फिर मुस्लिम भी। बॉम्बे ट्रायंगुलर उस समय का सबसे बड़ा टूर्नामेंट था जिसमें हिंदू, पारसी और यूरोपियंस के नाम से ब्रिटिश खिलाड़ियों की टीम खेलती थीं। 1912 से मुस्लिम टीम की एंट्री हुई और तब ये बॉम्बे क्वाड्रैंगुलर में बदल गया। ये टीमें खुद समाज के धर्म के आधार पर में बंटे होने का सबूत हैं। बात में इसी मुद्दे पर महात्मा गांधी ने क्रिकेट में रुचि ली थी- खैर वह एक अलग स्टोरी है।
पलवंकर बालू पुणे में पारसी टीम की क्रिकेट ड्यूटी पर थे जहां 3 रुपये महीना की सेलेरी थी। 1892 में पूना क्लब वाले उन्हें ले गए 4 रुपये महीना की सेलेरी पर- वहां भी काम वही था और फर्क ये कि यहां ब्रिटिश क्रिकेटर खेलते थे। आज टीमें नेट्स पर गेंदबाजी के लिए नेट्स बॉलर रखती हैं पर पहले ऐसा कोई सिस्टम नहीं था और इसी में जब कुछ अंग्रेजों ने 17 साल के बालू की गेंदबाजी को देखा तो उन्हें नेट्स पर स्पिन गेंदबाजी पर लगा दिया- अंग्रेज बल्लेबाज उन की गेंदबाजी पर प्रैक्टिस करते थे। रिकॉर्ड में ये दर्ज है कि जेजी ग्रिग नाम के एक इंग्लिश बल्लेबाज तो, जब भी बालू उन्हें आउट करते थे, इनाम में 8 आने देते थे (तब 1 रुपये में 16 आने होते थे)। इसी से बालू की स्पिन और बेहतर होती गई और वे नई ट्रिक भी सीखते गए।
अब बालू के अंदर बैटिंग प्रैक्टिस की उमंग जागी। बैटिंग तो बड़े लोगों का काम था और इसमें उन्हें कोई मौका न मिला पर नेट्स के बाद मौका लगे तो बैट संभालने से पहले वह कुछ बैटिंग करने लगे। बहरहाल उनकी मशहूरी स्पिन के लिए ही थी। तब हिंदू टीम को लगा कि उन्हें बालू की जरूरत है लेकिन टीम में खेल रहे बड़े घराने वाले उनके दलित होने पर ठिठक गए। बहरहाल एक अच्छे गेंदबाज की गेंदबाजी पर प्रैक्टिस के मौके को न छोड़ने की दलील पर बालू की हिंदू टीम के नेट्स पर बुला लिया।
यहां से शुरू हुई बालू के साथ हुए भेदभाव की स्टोरी। एक बेहतर गेंदबाज की गेंद पर प्रैक्टिस का फायदा मिला और हिंदू टीम ने यूरोपियन टीम को अक्सर ही हराना शुरू कर दिया। इस से प्रभावित हो बालू को प्रमोशन मिला और वे टीम में आ गए। ये अद्भुत नजारा था कि उनके भाइयों- शिवराम, गणपत और विट्ठल ने भी इसी टीम के लिए खेलना शुरू कर दिया। ये बात है 1896 की और वे परमानंददास जीवनदास हिंदू जिमखाना टीम में आए और बॉम्बे ट्रायंगुलर में खेले। पुणे में प्लेग फैला तो वे परियर को बंबई ले गए जहां फटाफट नौकरी भी मिल गई- सेंट्रल इंडियन रेलवे में। गड़बड़ ये हुई कि इनके क्रिकेट स्किल की तो तारीफ हुई पर भेदभाव चलता रहा- बाथरूम अलग, अन्य खिलाड़ियों के साथ एक टेबल पर लंच नहीं, उनके साथ कुर्सी पर न बैठना जैसे और भी कई किस्से हैं पर बालू को इस सब की आदत थी।
अब आते हैं 1906 के हिंदू-यूरोपियन बॉम्बे ट्रायंगुलर फाइनल पर। हिंदू टीम के 242 रन के जवाब में अंग्रेज 191 पर आउट और दूसरी पारी में, हिंदू 160 रन पर आउट। 212 रन के लक्ष्य के सामने बालू के 5 विकेट की बदौलत अंग्रेज महज 102 रन पर आउट हो गए और हिंदू टीम को देश पर राज कर रहे अंग्रेजों के विरुद्ध एक मशहूर जीत मिली। स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर था और ऐसे में इस ऐतिहासिक जीत का पूरे देश में जश्न मनाया गया। कुछ साल बाद ही सब बदलने लगा। अब बॉम्बे हिंदू जिमखाना में बालू अन्य सभी के साथ लंच करते थे, उनके भाई शिवराम भी टीम में आ गए- देश भर में इन बदलाव की मिसाल देते थे।
1911 में, वे इंग्लैंड टूर की टीम में थे। टीम तो ख़राब खेली पर बालू चमके- 87 विकेट लिए और 376 रन बनाए। इन सभी के बावजूद कभी भी बॉम्बे क्वाड्रैंगुलर में खेली हिंदू टीम का उन्हें कप्तान नहीं बनाया। जब ये मसला विवाद बनने लगा तो 1920 में बालू को टीम से बाहर कर दिया। विरोध में तीनों भाई- बालू, विट्ठल और शिवराम टीम से अलग हो गए। टीम के अन्य कई खिलाड़ियों के कहने पर बालू टीम में लौटे और उप-कप्तान बने। कहते हैं पारसी टीम के विरुद्ध अगले मैच के दौरान, कप्तान एमडी पाई जानबूझकर लंबे समय तक ग्राउंड से बाहर चले गए ताकि बालू कप्तानी कर सकें। बदलाव की लहर में विट्ठल भी कप्तान बने। हिंदू टीम का कप्तान एक दलित- इस खबर ने पूरे देश में बदलाव की क्रांति शुरू की। उन सालों में महात्मा गांधी भी अछूत प्रथा के विरोध में आंदोलन कर रहे थे।
यहां से शुरू होती है बालू की राजनीति में इनिंग। ये क्रिकेट से हटकर एक अलग कहानी है और हालात ऐसे भी बने कि 1937 में वे बीआर अंबेडकर के विरुद्ध बॉम्बे प्रेसीडेंसी के चुनाव में लड़े। जुलाई 1955 में बंबई में उनका निधन हो गया।
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अजय देवगन की पिछली फिल्म फुटबॉल खिलाड़ी सैयद अब्दुल रहीम के जीवन पर आधारित एक बायोपिक 'मैदान' है- अब वे एक क्रिकेटर की बायोपिक पर काम करेंगे। उधर धूलिया, मशहूर एथलीट पान सिंह तोमर पर बनी फिल्म के डायरेक्टर रहे हैं।