भारत का वह पहला क्रिकेटर कौन था जिसने संसद का चुनाव लड़ा?

Updated: Sat, May 11 2024 16:55 IST
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टीम इंडिया के कई पूर्व क्रिकेटर राजनीति की पिच पर भी अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। गौतम गंभीर, मोहम्मद अज़हरुद्दीन, नवजोत सिंह सिद्धू, कीर्ति आजाद और चेतन चौहान जैसे चुनाव लड़े और संसद में पहुंचे जबकि सचिन तेंदुलकर और हरभजन सिंह जैसे बिना चुनाव लड़े, राज्यसभा में भेजे गए। कई इस कोशिश में फेल हुए। 2024 के आम चुनाव में यूसुफ पठान और मनोज तिवारी भी रेस में हैं।  

 

एक बड़ा मजेदार सवाल ये है कि भारत के किस टेस्ट क्रिकेटर ने पहली बार संसद का चुनाव लड़ा? वे जीते या हारे- ये एक अलग चर्चा है। आज क्रिकेटरों को जो लोकप्रियता हासिल है, पहले ऐसा नहीं था और उनके लिए चुनाव, एक न खेल पाने वाली गुगली साबित हुए। स्वतंत्र भारत में ये रिकॉर्ड बना और मंसूर अली खान पटौदी ने विशाल हरियाणा पार्टी (अब ये नहीं है) के टिकट पर 1971 में गुड़गांव सीट से चुनाव लड़ा था। 

एक और बड़ी ख़ास बात ये है कि वे उस समय एक्टिव क्रिकेटर थे और चुनाव के बाद भी टेस्ट खेले। इसकी तुलना में, और कोई भी, भारत में एक्टिव टेस्ट क्रिकेटर होते हुए, चुनाव लड़ना तो दूर राजनीति में भी नहीं आया। मनोज तिवारी विधायक बनकर फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेले- टेस्ट नहीं। पटौदी के उस समय चुनाव लड़ने की स्टोरी बड़ी रोमांचक है। 

जब क्रिकेट के संदर्भ में साल 1971 का जिक्र आए तो सीधे 'बड़ी जीत' याद आती हैं- उसी साल वेस्टइंडीज और इंग्लैंड को उन्हीं की जमीं पर, न सिर्फ पहली बार टेस्ट में हराया, सीरीज भी जीते। इधर देश में ये साल राजनीति और युद्ध की चर्चा में खूब रहा। 1969 के आखिर से ही देश में राजनीतिक मंच पर कई बदलाव आ रहे थे। एक ही बात थी- ये युवा प्रतिनिधित्व का दौर है। यही क्रिकेट में हुआ और 1970 में दिसंबर की ठंड के दिनों में, अपने समय के भारत के टॉप बल्लेबाज में से एक और उस समय की सेलेक्शन कमेटी के चेयरमैन विजय मर्चेंट ने अपने कास्टिंग वोट से मंसूर अली खान पटौदी को कप्तान से हटाया और अजीत वाडेकर वेस्टइंडीज टूर के लिए भारत के नए कप्तान बने। जैसे ही पटौदी की कप्तानी गई- कुछ ही घंटों बाद, उन्होंने कह दिया कि वे वेस्टइंडीज टूर के लिए उपलब्ध नहीं हैं। मीडिया में इस बात को खूब मसाले लगाकर इस तरह पेश किया गया कि वे वाडेकर की कप्तानी में खेलना नहीं चाहते। मर्चेंट का कास्टिंग वोट या पटौदी का ये इंकार- सब अपने आप में अलग स्टोरी हैं। 

खैर अपने इस फैसले से पटौदी के पास फुरसत निकल आई। भारतीय क्रिकेट की किताबें उन्हीं दिनों की एक और बड़ी घटना का जिक्र नहीं करतीं। इस समय तक देश भर में बड़े पैमाने पर बदलाव की हवा चल रही थी। ये वे साल थे जब सरकार ने दो बड़े और ऐसे फैसले लिए जिनसे देश की तस्वीर ही बदल गई। पहला तो था कुछ बैंक का राष्ट्रीयकरण (Nationalization) और दूसरा देश में अभी तक चर्चा में मौजूद राजा-महाराजाओं के प्रिवी पर्स (Privy Purse) खत्म करना। इस प्रिवी पर्स वाले फैसले का असर पटौदी पर भी आया और एक ही रात में वे नवाब पटौदी से घटकर आम आदमी बन गए। इसीलिए 1969-70 में ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध घरेलू सीरीज में, उस समय स्कोर कार्ड में उनका नाम मंसूर अली खान लिखा गया। 

इस तरह पटौदी को उस दौर में एक नहीं- दो बड़े झटके लगे। सब जानते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के परिवार से, पटौदी परिवार के बड़े अच्छे सम्बंध थे जो आगे की पीढ़ी तक चले पर उस समय की अखबारों की रिपोर्ट कहती हैं कि मंसूर अली खान पटौदी को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का प्रिवी पर्स खत्म करने वाला फैसला पसंद नहीं आया पर वे चुप रहे। उसके बाद जब मर्चेंट के वोट ने उनसे कप्तानी भी छीन ली तो वे एकदम फुर्सत में आ गए। हर जगह बस यही लिखा जाता है कि पटौदी के युवा नवाब ने प्रिवी पर्स खत्म किए जाने के फैसले का विरोध करने का लोकतांत्रिक तरीका चुना और 'ट्रस्ट तोड़े जाने' के विरोध में जनादेश मांगने के लिए लोकसभा चुनाव लड़ा। सच ये है कि एक लोकल पार्टी (विशाल हरियाणा पार्टी) ने उन्हें चुनाव के लिए तैयार किया। अपनी चुनावी चर्चाओं में वे प्रिवी पर्स खत्म किए जाने का ही जिक्र करते थे हालांकि रिकॉर्ड के हिसाब से उन्हें तब पटौदी की छोटी रियासत के लिए 48 हजार रुपये सालाना ही मिलते थे। फिर भी, एक आम आदमी के नजरिए से तब ये भी बहुत बड़ी रकम थी पर वे सिद्धांत के तौर पर सरकार के फैसले का विरोध कर रहे थे। 

पटौदी क्रिकेट जानते थे, राजनीति नहीं। भले ही गुड़गांव वाले पटौदी रियासत से परिचित थे पर राजनीतिक मंच पर मुकाबला एक अलग बात है। आज ये जिक्र कहीं नहीं मिलता पर सच ये है कि क्रिकेट से ही पटौदी को चुनाव में विरोध मिला- लाला अमरनाथ उनके खिलाफ चुनाव लड़ने को तैयार थे। लाला जी ने कुछ चुनावी चर्चाओं में भी हिस्सा लिया पर उनकी समझ में बहुत जल्दी आ गया कि ये उनके खेलने वाली 'पिच' नहीं और ऑफिशियल तौर पर कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थन में उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। 

इस सीट पर पटौदी का सीधे मुकाबला कांग्रेस के सदाबहार उमीदवार चौधरी तैय्यब हुसैन से था। उनके नाम अनोखा रिकॉर्ड ये है कि वे अलग-अलग राज्य से संसद और विधान सभा के चुनाव लड़े और जीते। तीन अलग-अलग राज्य में वे सरकार में मंत्री रहे जो भारत की राजनीति में बड़ी आश्चर्यजनक उपलब्धि है। इस तरह पटौदी को जो चुनौती मिली उसे पटौदी ने हलके में ले लिया और नतीजा ये रहा कि 1971 के उस आम चुनाव में, पटौदी का ग्लैमर किसी काम न आया और उन्हें 5 प्रतिशत से भी कम वोट (22979) मिले। चौधरी साहब को 199333 (लगभग 50 प्रतिशत वोट) मिले लेकिन हैरानी की बात ये रही कि एक इंडेपेंडेंट उम्मीदवार के नरेंद्र भी पटौदी से ज्यादा वोट ले गए- 131391 (लगभग 33 प्रतिशत)। उस समय की अखबारें कहती हैं कि अगर पटौदी ने 1971 के उन चुनाव में नेहरू-गांधी परिवार के साथ संबंध का फायदा उठाकर, कांग्रेस का टिकट लिया होता तो वे न हारते पर वे तो उनकी पॉलिसी के विरोध में ही चुनाव में कूदे थे। यहां तक कि जब लाला अमरनाथ चुनाव से हटे तो उन्होंने भी वोटर से (नाम लिए बिना ) कहा था कि ग्लैमर के चक्कर में न पड़ें और कांग्रेस को ही वोट दें। 

एक टेस्ट क्रिकेटर का संसद में डेब्यू इस तरह 1971 में न हो पाया। ऐसे में, उन सालों में पटौदी की निराशा बढ़कर तीन हो गईं। एक बड़े विद्वान ने तब उनकी जन्मपत्री को पढ़ा और कहा कि उन पर 'शनि की महादशा' चल रही थी पर वे खुद ये भी मान गए कि इसी दौर में पटौदी का एक जैकपॉट भी लगा- उस समय की टॉप फिल्म स्टार शर्मिला टैगोर से उनकी शादी हुई। पटौदी चुनाव हारने के बाद क्रिकेट खेलने के लिए तैयार थे। 

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- चरनपाल सिंह सोबती  
 

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