कौन थे बुची बाबू जिनके नाम रणजी ट्रॉफी से भी पुराना टूर्नामेंट है? 114 साल पहले हुई थी शुरूआत
ऐसे दौर में जबकि रणजी ट्रॉफी और दलीप ट्रॉफी जैसे बड़े टूर्नामेंट के लिए दिन निकालना मुश्किल होता जा रहा है- बुची बाबू टूर्नामेंट (Buchi Babu) इन दिनों, फिर से खेल रहे हैं और आयोजक हैं तमिलनाडु क्रिकेट एसोसिएशन। एक मजेदार और ख़ास बात ये कि टूर्नामेंट के साथ जिन बुची बाबू का नाम जुड़ा है- उनका परिचय कोई लोकप्रिय या चर्चा में नहीं। विश्वास कीजिए- उन्हें तो 'फादर ऑफ़ मद्रास क्रिकेट' भी लिखते हैं और ये टूर्नामेंट रणजी ट्रॉफी से भी पुराना है। इसे भारत का सबसे बड़ा गैर फर्स्ट क्लास टूर्नामेंट गिनते थे।
पहली बार 1909-10 सीज़न में, मोथावरपु वेंकट महीपति नायडू (बुची बाबू यही हैं) के 1908 में निधन के एक साल बाद, इसे खेले और अपने पिता की याद में, इसे उनके तीन बेटों (एम बलैया नायडू, सी रामास्वामी- भारत के टेस्ट क्रिकेटर और वेंकटरामानुजुलु) ने आयोजित किया था। पहले सिर्फ लोकल टीमें ही खेलती थीं पर 1960 के सालों में ये ऑल इंडिया इन्विटेशन टूर्नामेंट बन गया। इसे भारत में घरेलू क्रिकेट सीजन शुरू करने वाला टूर्नामेंट मानते थे। ढेरों बड़े क्रिकेटर इसमें खेले- 1971 में जब सुनील गावस्कर खेले थे तो हालत ये हुई थी कि बल्लेबाजी के लिए जा रहे थे तो प्रशंसकों की भीड़ में कई मिनट तक फंसे रहे और आखिर में पुलिस एस्कॉर्ट ने उन्हें क्रीज तक पहुंचाया।
असली चर्चा का मुद्दा ये है कि ये बुची बाबू कौन थे? जन्म- 1868 में। काम- ब्रिटिश कंपनियों और घरेलू व्यापारियों के बीच सौदों में बिचौलिए और अमीर परिवार था उनका मद्रास में। खेलों के शौकीन थे और जब देखा कि शहर में क्रिकेट पर गोरे लोगों के मद्रास क्रिकेट क्लब (एमसीसी) का दबदबा है और वे चेपॉक में खेलते हैं तो बाबू, मद्रास में कुछ ख़ास करना चाहते थे स्थानीय लोगों के लिए।
मायलापुर में उनके बड़े बंगले को लूज़ हाउस कहते थे और वे यहीं से अपने प्रोजेक्ट चलाते थे। अपने मैचों के लिए जब चेपॉक का एमसीसी पवेलियन मांगा तो इजाजत नहीं मिली। ऐसे में नाराज होकर, खुद मद्रास यूनाइटेड क्रिकेट क्लब बना दिया शहर के भारतीय लोगों के लिए। किसी ने ट्रेनिंग दी तो किसी ने किट और धीरे-धीरे टीम बना ली। बाबू की ये टीम इतनी अच्छी बनी कि एमसीसी के विरुद्ध नियमित खेलने लगी।
1908 में पहले प्रेसीडेंसी मैच से ठीक पहले उनकी मृत्यु हो गई। जो शुरुआत उन्होंने की, उसे उनके तीन बेटों ने जारी रखा। तीनों शुरुआती प्रेसीडेंसी मैचों के स्टार थे और रामास्वामी तो क्रिकेट और टेनिस दोनों में भारत के लिए खेले। रिटायर होने के बाद, रामास्वामी कई साल नेशनल सेलेक्टर रहे। बाबू के कई पोते तमिलनाडु में रणजी ट्रॉफी और लीग क्रिकेट खेले। बुची बाबू मेमोरियल टूर्नामेंट जो 1909-10 में शुरू हुआ और जब इस का प्रोफ़ाइल बढ़ा और बाहर से भी स्टार क्रिकेटर खेलने के लिए आने लगे तो टीएनसीए ने इसे अपने बैनर में ले लिया। देश के ज्यादातर हिस्सों में मानसून के दिन के उलट मद्रास अगस्त में आम तौर पर ड्राई रहता है- इससे ये इन दोनों में क्रिकेट खेलने का सेंटर बन गया।
टूर्नामेंट में, बाकी भारतीय घरेलू क्रिकेट की तरह, एक दौर ऐसा था जब बॉम्बे की टीमों का दबदबा था। मफतलाल स्पोर्ट्स क्लब का नाम खूब चमका और अशोक मांकड़ की टीम में, एकनाथ सोलकर, बृजेश पटेल, पार्थसारथी शर्मा और धीरज परसाना जैसे खिलाड़ी थे। बॉम्बे के निरलोन स्पोर्ट्स क्लब की टीम में गावस्कर, रवि शास्त्री और संदीप पाटिल थे। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने 80 के दशक में कई टाइटल जीते।
धीरे-धीरे इंटरनेशनल मैच बढ़ने लगे, बीसीसीआई के अपने टूर्नामेंट की गिनती बढ़ गई तो बाहर से, इसके लिए टीम का आना कम हो गया। साथ में लिमिटेड ओवर क्रिकेट का युग आ गया तो इसी से प्रभावित हो कर इसके मैच दो दिन के 100-ओवर-ए-साइड बना दिए। मैचों को 3 से 2 दिन का करने से ये टूर्नामेंट किसी के भी काम का नहीं रहा। तब से लगभग हर सीजन में फॉर्मेट और प्लेइंग कंडीशन बदलने लगे ताकि भारत के बड़े होते जा रहे क्रिकेट कैलेंडर में इस टूर्नामेंट की पहचान बनी रहे पर ऐसा हुआ नहीं। अब इस टूर्नामेंट की वापसी 4 दिन वाले मैचों के साथ हुई है और इसमें हिस्सा लेने की बेताबी ने इसे नई लाइफ लाइन दी है।
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बुच्ची बाबू नायडू ने मद्रास में क्रिकेट पर अंग्रेजों का दबदबा देखा तो वे चाहते थे कि भारत के अपने निवासी भी खेलें। यही सोच और इस सपने को साकार करने की उनकी मेहनत ने एक ऐसी टीम बनाई जो नियमित अंग्रेजों की टीम से ही खेलने लगी। इसी से मद्रास (अब चेन्नई) भारत में क्रिकेट का एक सेंटर बना और प्रेसीडेंसी मैच के लिए नियमित उनके क्लब के खिलाड़ी जाने लगे।