ऐसे दौर में जबकि रणजी ट्रॉफी और दलीप ट्रॉफी जैसे बड़े टूर्नामेंट के लिए दिन निकालना मुश्किल होता जा रहा है- बुची बाबू टूर्नामेंट (Buchi Babu) इन दिनों, फिर से खेल रहे हैं और आयोजक हैं तमिलनाडु क्रिकेट एसोसिएशन। एक मजेदार और ख़ास बात ये कि टूर्नामेंट के साथ जिन बुची बाबू का नाम जुड़ा है- उनका परिचय कोई लोकप्रिय या चर्चा में नहीं। विश्वास कीजिए- उन्हें तो 'फादर ऑफ़ मद्रास क्रिकेट' भी लिखते हैं और ये टूर्नामेंट रणजी ट्रॉफी से भी पुराना है। इसे भारत का सबसे बड़ा गैर फर्स्ट क्लास टूर्नामेंट गिनते थे।
पहली बार 1909-10 सीज़न में, मोथावरपु वेंकट महीपति नायडू (बुची बाबू यही हैं) के 1908 में निधन के एक साल बाद, इसे खेले और अपने पिता की याद में, इसे उनके तीन बेटों (एम बलैया नायडू, सी रामास्वामी- भारत के टेस्ट क्रिकेटर और वेंकटरामानुजुलु) ने आयोजित किया था। पहले सिर्फ लोकल टीमें ही खेलती थीं पर 1960 के सालों में ये ऑल इंडिया इन्विटेशन टूर्नामेंट बन गया। इसे भारत में घरेलू क्रिकेट सीजन शुरू करने वाला टूर्नामेंट मानते थे। ढेरों बड़े क्रिकेटर इसमें खेले- 1971 में जब सुनील गावस्कर खेले थे तो हालत ये हुई थी कि बल्लेबाजी के लिए जा रहे थे तो प्रशंसकों की भीड़ में कई मिनट तक फंसे रहे और आखिर में पुलिस एस्कॉर्ट ने उन्हें क्रीज तक पहुंचाया।
असली चर्चा का मुद्दा ये है कि ये बुची बाबू कौन थे? जन्म- 1868 में। काम- ब्रिटिश कंपनियों और घरेलू व्यापारियों के बीच सौदों में बिचौलिए और अमीर परिवार था उनका मद्रास में। खेलों के शौकीन थे और जब देखा कि शहर में क्रिकेट पर गोरे लोगों के मद्रास क्रिकेट क्लब (एमसीसी) का दबदबा है और वे चेपॉक में खेलते हैं तो बाबू, मद्रास में कुछ ख़ास करना चाहते थे स्थानीय लोगों के लिए।