1987 वर्ल्ड कप का आयोजन भारतीय उपमहाद्वीप को कैसे मिला- इसकी स्टोरी अगर अनोखी है तो ये आयोजन हासिल करने के बाद जो हुआ उसकी स्टोरी तो और भी अनोखी हैं। इन्हीं में से एक है वर्ल्ड कप के लिए स्पांसर ढूंढना। पाकिस्तान हालांकि संयुक्त मेजबान था पर उन्होंने पहले ही साफ़ कर दिया था कि पैसे का इंतजाम या स्पांसर ढूंढना- ये सब भारत को करना होगा। वर्ल्ड कप का सफलता से आयोजन एनकेपी साल्वे के लिए व्यक्तिगत सम्मान से ज्यादा देश का सम्मान था और वे ये सब करते रहे। स्पांसर जल्दी से मिलना बहुत जरूरी था क्योंकि तय ये हुआ था कि दिसंबर 1984 तक सभी आईसीसी सदस्य देशों को उनकी तय गारंटी मनी की पेमेंट कर देंगे- हालांकि वर्ल्ड कप 1987 में था।
उस पर, और भी बड़ा सिर दर्द ये कि पैसा फॉरन करेंसी में देना था। तब देश में न तो आज की तरह से पैसा था और न फॉरन करेंसी का बड़ा रिजर्व। इसलिए हल ढूंढा कि कोई विदेशी स्पांसर ले आओ। कोई नहीं मिला। उसके बाद मूलतः भारत के हिंदुजा भाइयों का हिंदुजा ग्रुप तैयार हो गया। ये वर्ल्ड कप- हिंदुजा कप बनने के बहुत करीब था पर कुछ शर्त पर बात अटक गई।
आख़िरी तारीख नजदीक आ रही थी और ऐसे में सरकार ने अपने फॉरन करेंसी खजाने की बहुत अच्छी हालत न होने के बावजूद मदद की पर शर्त ये थी कि पैसा तो बीसीसीआई को ही लाना होगा। अब चूंकि ये साफ़ हो गया कि स्पांसर रुपये में भी पैसा दे तो काम चलेगा- इसलिए भारत में स्पांसर ढूंढा गया। तब आज की तरह से स्पांसरशिप के कई दावेदार नहीं होते थे- स्पांसर ढूंढना पड़ता था।