वह 5 मई 2012 का दिन था। सब जगह लिखा गया ये लॉयल्टी का इम्तिहान है- आप दादा यानि कि सौरव गांगुली (Sourav Ganguly) के साथ हैं या केकेआर के? ये क्या बात हुई- ये दोनों तो 'कोलकाता' ही हैं। कुछ कह रहे थे- आप दोनों का समर्थन कर सकते हैं तो किसी एक नाम क्यों लें? उस दिन, उस आईपीएल मैच ने, खचाखच भरे ईडन गार्डन्स को दो हिस्सों में बांट दिया था और आईपीएल में इस जैसी स्टोरी और कोई नहीं। हार्दिक पांड्या की इस सीजन में हो रही हूटिंग भी इसके मुकाबले में कुछ नहीं। 2012 की उस स्टोरी पर चलते हैं।
कोलकाता के अपने सौरव गांगुली जिन्हें वहां 'प्रिंस ऑफ़ कोलकाता' कहते थे- उनके लिए दीवानगी के सामने कुछ भी नहीं था और इसका सबूत कई बार मिला। जब 2000 के सालों के बीच कोच ग्रेग चैपल के साथ विवाद के बाद उन्हें टीम इंडिया के कप्तान से हटा दिया था तो ये दीवाने उन्हें सपोर्ट करने सड़कों पर उतर आए थे। हालत ये थी कि वनडे के दौरान ईडन गार्डन्स खचाखच भरा था और कोलकाता वाले मेहमान दक्षिण अफ़्रीकी खिलाड़ियों को सपोर्ट कर रहे थे क्योंकि गांगुली टीम इंडिया में नहीं थे।
आईपीएल के पहले 3 सीज़न के बाद, जब केकेआर ने सौरव को रिलीज कर दिया तो ये एक ऐसा फैसला था जो बंगाल की सबसे बड़ी खबर बन गया।'नो दादा, नो मैच' नहीं, वे तो 'नो दादा, नो केकेआर' की मुहिम चला रहे थे। पुणे वॉरियर्स ने सौरव को लाइफ लाइन दी और कप्तान बना दिया- तब कुछ शांति हुई। ये गांगुली के क्रिकेट करियर का बड़ा नाजुक मुकाम था- सब चाहते थे वह कामयाब हों लेकिन यकीन नहीं था कि ऐसा हो पायेगा।आख़िरकार, 38 साल उम्र हो चली थी और पिछले 5 महीने से बैट तक नहीं उठाया था। वह आईपीएल खेलना चाहते थे- ठीक है पैसा तो एक वजह था ही लेकिन उन्हें खेलने में मजा आ रहा था। वे ये भी साबित करना चाहते थे कि ऑक्शन में किसी भी बड़ी टीम ने उन्हें न चुनकर गलती की है। क्या आधुनिक क्रिकेट में इन भावनाओं के लिए कोई जगह है?