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टीम इंडिया का वो खिलाड़ी जिसकी मौत सिर्फ 40 साल में हुई,पत्नी और 7 बच्चों की मदद के लिए हुआ था कैबरे शो

Dattaram Hindlekar : इस साल जब 2 फरवरी से अफगानिस्तान ने अपने श्रीलंका टूर में कोलंबो में टेस्ट खेला तो टेस्ट शुरू होने से पहले की एक खबर बड़ी ख़ास थी अफगानिस्तान के इब्राहिम जादरान ने अपने अंकल को उनकी

Charanpal Singh Sobti
By Charanpal Singh Sobti February 26, 2024 • 10:14 AM
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अंकल के साथ टेस्ट खेलना वाकई बड़ी अजीब और ख़ास बात है पर सच ये है कि किसी टेस्ट क्रिकेटर के अंकल भी टेस्ट खेले हों- ये भी कुछ कम अजीब नहीं। विश्वास कीजिए भारत में इसकी मिसाल हैं और उनमें से एक किस्सा बड़ा अनोखा है पर उस इतिहास पर धूल की परत चढ़ी है। सुनील गावस्कर-माधव मंत्री की मिसाल सब देते हैं पर जिस मिसाल की यहां बात कर रहे हैं- कोई उसे याद नहीं करता। ये क्रिकेट में रिश्तेदारी की बड़ी अनोखी मिसाल है क्योंकि इसमें तीन पीढ़ी का रिश्ता बना। 

सीधे उस परिवार पर चलते हैं। पहला नाम है दत्ताराम हिंडलेकर का- वे 1936 से 1946 के बीच 4 टेस्ट खेले। उनकी क्रिकेट के बेहतरीन साल तो वर्ल्ड वॉर 2 और उनकी ख़राब फिटनेस में बर्बाद हो गए और उस पर उन दिनों में टेस्ट भी बड़े कम खेले जाते थे। उनकी बहन के बेटे थे विजय मांजरेकर और वे 1952 से 1965 के बीच 55 टेस्ट खेले। तीसरी पीढ़ी में संजय मांजरेकर आ गए जो 1987 से 1996 के बीच 37 टेस्ट खेले। इनमें से कोई एक-दूसरे के साथ नहीं खेला। 

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विजय और संजय मांजरेकर के इंट्रो में यही लिखा जाता है कि ये विशेषज्ञ बल्लेबाज थे पर वास्तव में ये दोनों बड़े अच्छे विकटकीपर भी थे और कहते हैं कि विकेटकीपिंग की ये विरासत इन्हें दत्ता हिंडलेकर से मिली। दत्ता हिंडलेकर विशेषज्ञ विकेटकीपर थे। विजय और संजय मांजरेकर का तो बहुत जिक्र होता रहता है पर दत्ता हिंडलेकर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं- इसलिए उन्हीं की बात करते हैं। वैसे भी उनके परिचय में बहुत सी नोट करने वाली ख़ास बातें हैं। 

वे 4 से ज्यादा टेस्ट नहीं खेल पाए- ये उनकी किस्मत रही पर विजडन ने एक बार उन्हें भारत के सबसे बेहतर विकेटकीपर में से एक गिना था। हिंडलेकर 1936 और 1946 में इंग्लैंड टूर पर गए और वहीं अपने 4 टेस्ट खेले। 1936 में लॉर्ड्स में पहले टेस्ट में डेब्यू करते हुए ओपनिंग की (स्कोर 26 और 17) पर टूर में उंगली की हड्डी टूटने (कुछ रिपोर्ट में लिखा है कि उंगली कट गई थी) और एकदम नजर धुंधली होने से परेशान रहे और एक टेस्ट ही खेले। वे तो, इसके बाद,  मान चुके थे कि टेस्ट करियर खत्म हो चुका है पर 1946 में फिर से टेस्ट टीम में आ गए। तब वह 37 साल के थे लेकिन 1945-46 के बॉम्बे पेंटेंगुलर फाइनल में उनका फॉर्म देखकर टेस्ट टीम में ले लिया। इस बार पीठ में खिंचाव के कारण कई टूर मैच से बाहर रहे। सबसे मशहूर किस्सा मैनचेस्टर में दूसरे टेस्ट का है जब उनकी (नंबर 11) और नंबर 9 सोहोनी की आखिरी जोड़ी पिच पर थी और हार सामने थी पर 13 मिनट तक अपना विकेट बचाया और इसी से टेस्ट भी बचा लिया। टेस्ट करियर में ओपनर और नंबर 11 दोनों पर खेलना- उनके हिस्से में आए।  

बड़े हंसमुख थे और टूरिंग टीम के बेहद लोकप्रिय मेंबर। उनके स्टांस की तब बड़ी चर्चा होती थी- अपने पैरों को एक-दूसरे से 45 डिग्री के कोण पर रखते थे। कोई विवाद नहीं है उनके नाम पर। बस एक गड़बड़ कर गए- उनके 7 बच्चे थे। उस पर 40 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया। इतने बड़े परिवार के लिए वे ऐसा कुछ नहीं छोड़ गए थे कि जिससे वे आराम से रह पाते। 

यहां से उनकी स्टोरी का वह हिस्सा शुरू होता है जो उस दौर के क्रिकेटरों की हालत बयान करता है। वे क्रिकेटर थे पर परिवार का खर्चा उठाने के लिए बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट में नौकरी करते थे। बहुत ज्यादा सैलरी भी नहीं थी। 80 रुपये महीना मिलते थे और इतने पैसे भी नहीं थे कि अपने ग्लव्स खरीदते- उधार मांगे ग्लव्स के साथ खेलते थे। तंगी में रहते थे और उस पर जब बीमार हुए तो जो था वह भी उन पर ही खर्च हो गया। इतनी तंगी थी कि उन्हें हॉस्पिटल में इलाज तक नसीब नहीं हुआ। इससे हालत और बिगड़ती गई। बीसीसीआई और बीसीए ने कोई मदद नहीं की। जब बिलकुल आख़िरी समय आ गया तो बॉम्बे के आर्थर रोड हॉस्पिटल ले गए पर कोई फायदा नहीं हुआ। 

अब इसके बाद का किस्सा तो और भी अनोखा है। उनकी पत्नी और 7 बच्चे कैसे रहेंगे- इस पर तब की अख़बारों में बहुत कुछ लिखा गया। इस पर, बीसीसीआई और बॉम्बे क्रिकेट एसोसिएशन ने खुद तो कोई मदद नहीं की पर उनके परिवार की मदद के लिए योगदान की अपील जारी कर दी- इससे कुछ ख़ास नहीं हुआ। बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट, जहां वे नौकरी करते थे, उन्होंने भी जो मदद की वह पर लगभग न के बराबर थी। 

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इसके बाद बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट ने परिवार की मदद के लिए एक ऐसा काम किया जिसकी भारतीय क्रिकेट तो क्या शायद विश्व क्रिकेट में कोई और मिसाल नहीं होगी- बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट ने अगस्त 1949 में एक कैबरे शो आयोजित किया और उसकी टिकट की बिक्री से इकट्ठा हुआ लगभग 7 हजार रुपये का मुनाफा उनके परिवार को दे दिया। एक क्रिकेटर के परिवार की मदद के लिए कैबरे के आयोजन की ये अनोखी मिसाल है और अपने आप में एक अलग स्टोरी भी।
 



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