साल था 1962, और जगह थी इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता, जहां एशियाई खेलों का आयोजन हो रहा था। मैदान पर तनाव चरम पर था। लाखों इंडोनेशियाई दर्शक, जो भारत के विरोधी माहौल में डूबे हुए थे, भारतीय टीम की हर चाल पर हूटिंग कर रहे थे। भारतीय फ़ुटबॉल टीम अपने इतिहास के सबसे बड़े मुकाबले, फाइनल में, दक्षिण कोरिया का सामना कर रही थी और इसका केंद्रीय किरदार था एक निडर सिख खिलाड़ी, जिसकी पहचान मैदान पर उसकी लौह-दीवार जैसी रक्षापंक्ति थी। नाम था जरनैल सिंह ढिल्लों।
जरनैल सिंह को दुनिया एशिया के सर्वश्रेष्ठ डिफेंडरों में से एक मानती थी, लेकिन वह फाइनल में एक डिफेंडर के रूप में नहीं, बल्कि एक स्ट्राइकर के रूप में खेल रहे थे क्योंकि सेमीफाइनल में वियतनाम के खिलाफ खेलते समय उनके सिर में गंभीर चोट लगी थी, जिस पर छह टांके लगे थे। डॉक्टरों ने उन्हें खेलने से मना कर दिया था, लेकिन कोच एसए रहीम ने एक साहसी दांव खेला। रहीम साहब जानते थे कि जरनैल अपनी निडरता और हेडर की ताकत के कारण अटैक में भी मूल्यवान हो सकते हैं, बशर्ते उन्हें दौड़-भाग कम करनी पड़े।
और फिर, वह जादुई क्षण आया। जब मैच निर्णायक मोड़ पर था, तब जरनैल सिंह ने अपने सिर पर बंधी पट्टी के बावजूद, अपने शानदार हेडर से गेंद को नेट में डाल दिया। यह गोल सिर्फ एक अंक नहीं था। यह दृढ़ संकल्प की विजय थी। भारत ने 2-1 से वह फाइनल मुकाबला जीता और स्वर्ण पदक हासिल किया। जरनैल सिंह, जो अपनी रक्षात्मक क्षमता के लिए जाने जाते थे, उस दिन स्ट्राइकर के हीरो बनकर उभरे। इस अदम्य साहस और अतुलनीय प्रदर्शन ने उन्हें भारतीय फुटबॉल का 'शेर' बना दिया।