मौजूदा समय में जैवलिन बेहद लोकप्रिय खेल है। टोक्यो ओलंपिक में नीरज चोपड़ा के गोल्ड जीतने के बाद भारत में भी जैवलिन की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। इस खेल को लेकर युवाओं में वैश्विक स्तर पर क्रेज है। ताकत और तकनीक से परिपूर्ण इस खेल का इतिहास बेहद पुराना है और शुरुआती समय में जैवलिन अपने मौजूदा रूप में नहीं था।
जैवलिन थ्रो (भाला फेंक) की शुरुआत लगभग 2700-2800 साल पहले ग्रीस (पूर्व में यूनान) में हुई थी। भाला फेंक का इजाद खेल के रूप में नहीं बल्कि युद्ध और शिकार के लिए किया गया था। बाद में यह खेल का हिस्सा बना। प्राचीन काल में भाला मुख्य हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता था। होमर के महाकाव्य इलियड में ट्रोजन युद्ध के दौरान योद्धा दुश्मन की तरफ भाले फेंकते हुए दिखाए गए हैं। हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी भाला का जिक्र है। पुराने समय में भाला 2-3 मीटर लंबा होता था और लकड़ी या लोहे का होता था।
भाले का इस्तेमाल युद्ध क्षेत्र से निकलकर धीरे-धीरे खेल के मैदान में होने लगा। खेल के लिए शुरुआत में इस्तेमाल होने वाले भाले की लंबाई 2.3 से 2.5 मीटर होती थी और बीच में चमड़े की पतली रस्सी लपेटी जाती थी। एथलीट इस रस्सी को उंगली में फंसाकर भाला फेंकते थे, जिससे भाले को घूमने की गति मिलती थी और वह ज्यादा दूर तक जाता था। यह तकनीक आज भी इस्तेमाल होती है। मध्यकाल और पुनर्जागरण मध्ययुग में यूरोप के कई देशों में भाला फेंकना लोकप्रिय खेल बना रहा। आयरलैंड, स्कॉटलैंड, जर्मनी, स्वीडन और फिनलैंड में ग्रामीण इलाकों में लोग लकड़ी के भाले फेंककर प्रतियोगिताएं करते थे। फिनलैंड में इसे राष्ट्रीय खेल के तौर पर माना जाता था।