अक्षय खन्ना का ऑल इंडिया रेडियो पर क्रिकेट की आवाज़ से 'धुरंधर' कनेक्शन
2025 की सबसे कामयाब बॉलीवुड फिल्म में से एक साबित हो रही है धुरंधर (Dhurandha)। इसमें भी ख़ास चर्चा हो रही है अक्षय खन्ना (Akshaye Khanna)की। इन दिनों उनके अपने और परिवार के फ़िल्मी बैकग्राउंड के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। वह अपने समय के मशहूर अभिनेता विनोद खन्ना के बेटे हैं।
अक्षय खन्ना के बारे में एक लगभग अनजान या यूं कह दीजिए कि न मालूम सा फैक्ट है उनका क्रिकेट से बहुत गहरा कनेक्शन। वह भारत के सबसे प्रतिष्ठित और दुनिया भर में मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर एएफएस तल्यारखान (AFS Talyarkhan: एएफएसटी या बॉबी तल्यारखान के नाम से भी मशहूर) के नाती (बेटी के बेटे) हैं। क्रिकेट प्रेमियों की मौजूदा पीढ़ी ने तो शायद बॉबी तल्यारखान का नाम भी न सुना हो लेकिन सच ये है कि भारत में क्रिकेट ब्रॉडकास्ट के इतिहास में उनकी एक ख़ास जगह है और कई लोगों का मानना है कि बॉबी तल्यारखान 'ऑल इंडिया रेडियो पर क्रिकेट की आवाज़' थे।
सबसे पहले, रिश्ते के बारे में बात करते हैं: अक्षय खन्ना अपनी मां, गीतांजलि (विनोद खन्ना की पहली पत्नी) के जरिए तल्यारखान परिवार से जुड़े हैं और अर्देशिर फुरदोरजी सोहराबजी 'बॉबी' तल्यारखान उनके नाना थे। वह पारसी थे। यह 1960 के दशक के आखिर की बात है। जब विनोद खन्ना अपने कॉलेज के थिएटर ग्रुप में शामिल हुए तो वहां उनकी मुलाकात गीतांजलि तल्यारखान से हुई और जल्दी ही प्यार हो गया। गीतांजलि एक मॉडल थीं और वकीलों और बिजनेसमैन का परिवार था उनका। विनोद खन्ना और गीतांजलि का तलाक होने पर अक्षय और उनके भाई की परवरिश गीतांजलि ने ही की थी।
एएफएसटी एक रेडियो कमेंटेटर थे और शुरू के उन कुछ लोगों में से एक जिन्होंने भारत में क्रिकेट कमेंट्री को लोकप्रिय बनाया। उन्हें तो अक्सर भारत का पहला रेडियो क्रिकेट कमेंटेटर भी कहा जाता है। 1897 में जन्मे बॉबी तल्यारखान ने एआईआर (AIR) के लिए क्रिकेट कमेंट्री करना शुरू किया 1934 में मुंबई के मशहूर एस्प्लेनेड मैदान में पारसी और मुस्लिम के बीच क्वाड्रेंगुलर टूर्नामेंट में एक मैच से। उसके बाद तो अगले कुछ दशक तक उनका नाम रेडियो कमेंट्री के साथ जुड़ गया और वे साथ-साथ क्रिकेट पर तीखी भाषा और नई बातों को सामने लाने वाले आर्टिकल भी लिखने लगे। मुंबई से प्रकाशित होने वाले टैब्लॉइड ब्लिट्ज़ में स्पोर्ट्स पर उनका कॉलम, 'टेक इट फ्रॉम मी' (बाद में इसका नाम 'नॉक आउट' हो गया) अपनी तीखी बातों और रहस्य खोलने वाली स्टाइल के आर्टिकल के लिए, भारत में किसी भी अखबार में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कॉलम में से एक रहा। कॉलम के साथ हमेशा उनकी दाढ़ी और पाइप वाली फोटो छपती थी।
एक अनोखी बात ये कि रेडियो कमेंटेटर होने के बावजूद (इन्हें कमेंट्री के बीच में एक क्षण के लिए भी रुकने का कोई मौका नहीं मिलता), वह बिना रुके पूरे दिन कमेंट्री कर सकते थे। राम गुहा अपनी किताब 'ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड (A Corner Of A Foreign Field)' में लिखा है, 'उन को अपने ऊपर कमाल का कंट्रोल था क्योंकि बिना रुके बोलते थे (लंच और टी इंटरवल को छोड़कर)।' वह कमेंट्री बॉक्स में अकेले होते थे और कभी दूसरों के साथ कमेंट्री नहीं करते थे। दूसरे शब्दों में, उन्हें माइक्रोफ़ोन शेयर करना पसंद ही नहीं था और पूरे दिन अकेले ही कमेंट्री करते थे।
1948-49 में वेस्टइंडीज टीम भारत टूर पर आई और तब उस टेस्ट सीरीज़ को कवर करने के लिए, एआईआर ने एक 3 सदस्य का कमेंटेटर पैनल बना दिया। ये बात बॉबी तल्यारखान को पसंद नहीं आई और जब उनके अकेले कमेंट्री करने के अनुरोध को न माना तो वह रिटायर हो गए और हमेशा के लिए कमेंट्री बॉक्स को अलविदा कह दिया। तब भी उन्हें खास तौर पर भारत के पहले 1954-55 के पाकिस्तान टूर के वक्त बुलाया तो वह बॉक्स में लौट आए। इसके बाद 1972-73 में जब इंग्लैंड की टीम भारत टूर पर थी तो वह टेस्ट में दिन का खेल खत्म होने पर, पूरे दिन के खेल के प्रेजेंटर थे।
वह ग्राउंड में हो रहे एक्शन को इतने अच्छे से बताते थे कि सुनने वालों को लगता था कि वे खुद स्टेडियम के अंदर मैच देख रहे हैं। उन दिनों हॉकी भारत का सबसे लोकप्रिय खेल था और भारतीय हॉकी टीम को दुनिया की सबसे अच्छी टीम मानते थे। दूसरी ओर, क्रिकेट में भारत का रिकॉर्ड इतना अच्छा नहीं था। तब भी,बॉबी तल्यारखान की क्रिकेट कमेंट्री ने लोगों को क्रिकेट की ओर खींचा।
कमेंट्री का उनका अपना एक अलग ही अंदाज था। मिसाल के तौर पर, जब भी कोई मशहूर बल्लेबाज अपना पहला रन बनाए तो बॉबी तल्यारखान कहते थे 'अब सेंचुरी के लिए सिर्फ 99 रन और बनाने हैं।' हर्षा भोगले कहते हैं कि 'मुझे लगता है कि शायद, उनकी कमेंट्री की जो स्टोरी मैंने अपने पिता से सुनीं, उन्हीं से मेरे अंदर भी कमेंटेटर बनने की उमंग जगी।'
बॉबी तल्यारखान को अपने लिखने की अनोखी स्टाइल के बारे में खूब मालूम था और लोग उसे बड़ा पसंद करते थे। हर्षा भोगले उसी दौर की एक स्टोरी बताते हैं। तब हर्षा स्पोर्ट्सवर्ल्ड (कोलकाता से प्रकाशित वीकली) के साथ जुड़े थे और एक बार, 'हमने उन्हें स्पोर्ट्सवर्ल्ड के लिए एक कॉलम लिखने को कहा तो वे फौरन राजी हो गए और पेमेंट के तौर पर सिर्फ 400 रुपये मांगे हालांकि उन्हें कहीं बड़ी रकम दे देते।' ऐसी उमंग थी लिखने के मौके के लिए। 13 जुलाई, 1990 को अपने निधन तक वे मुंबई के टैब्लॉयड मिड-डे के लिए क्रिकेट, रेसिंग, हॉकी, फुटबॉल और बॉक्सिंग पर एक कॉलम लिखते रहे। हर कॉलम को 'स्टीव, क्या तुम मेरी बात समझ रहे हो' की लाइन लिखकर खत्म करते थे।
गजब का व्यक्तित्व था। लाल रंग की स्पोर्ट्स मॉडल MG कार चलाते थे। एक बार मर्फी रेडियो के एक एड में भी दिखे थे। जिन लोगों ने उन्हें कमेंट्री करते देखा है, उनका कहना है कि एक टेस्ट मैच के सभी 5 दिन तक अकेले कमेंट्री कर सकते थे। टेबल पर व्हिस्की की बोतल रखी होती थी; वह कुछ घूंट लेते और कमेंट्री शुरू कर देते और 5 दिन तक बिना रुके (लंच और चाय के ब्रेक को छोड़कर) ऐसा ही करते रहते क्योंकि उन्हें माइक शेयर करना पसंद नहीं था। वह अकेले ही कमेंट्री करना पसंद करते थे। क्रिकेट के अलावा, उन्होंने हॉकी और फुटबॉल पर भी कमेंट्री की।
चरनपाल सिंह सोबती